हमारे गाँव कठडूमर की कुछ जमीन कटाव में चली गयी, कुछ बालू बुर्ज हो गयी।
कोसी तटबंधों के बीच का गाँव
कोसी तटबन्धों के बीच एक गाँव है कठडूमर जो सहरसा जिले के सिमरी बख्तियारपुर प्रखण्ड में स्थित है। अब कोई गाँव अगर कोसी तटबन्धों के बीच स्थित है तो उसे नदी कब समेट लेगी यह तो किसी को पता नहीं है। 1973 की बाढ़ में ऐसा ही हुआ कि इस गाँव के साथ यह अनहोनी घट गयी।
गाँव का कटाव और पुनर्वास की निराशाजनक स्थिति
कठडूमर में इस वर्ष हुई क्षति की जानकारी के लिये इस गाँव के एक 80 वर्षीय बुजुर्ग श्री बालेश्वर प्रसाद सिंह से बातचीत की। उनका कहना था कि हम लोग तो कोसी तटबन्धों के बीच अपने गाँव कठडूमर में ही रह रहे थे। 1973 में कोसी का प्रवाह हमारे गाँव के पूरब की तरफ गाँव और कोसी के पूर्वी तटबन्ध के बीच से था। कोसी नदी ने हमारे गाँव का कटाव करना शुरू कर दिया था और गाँव धीरे-धीरे लगभग पूरा कट गया था।
गाँव का कटाव जैसे शुरू हुआ वैसे-वैसे लोग अपना सामान और मवेशी इत्यादि लेकर पश्चिम की ओर जाने लगे जहाँ हमारे खेत हुआ करते थे और वहीं झोपड़ी डाल कर जहाँ-तहाँ रह रहे थे थे। कोसी तटबन्धों के निर्माण के बाद पुनर्वास अभी तक हम लोगों को मिला नहीं था। जब भी हम लोगों ने विभाग से पुनर्वास की बात की तो उनका कहना था कि आप लोगों का गाँव कोसी धार के पश्चिम में है तो आपकी पुनर्वास की जमीन भी नदी के पश्चिम में ही मिलेगी। पूर्वी तटबन्ध के पूरब में जमीन नहीं मिलेगी।
पश्चिम में बागमती का पानी और पुनर्वास का संकट
हमारे गाँव के पश्चिम में कोसी नदी का पश्चिमी तटबन्ध समाप्त हो जाता था और वहाँ जाने का मतलब था कि उस समय वहाँ बागमती का पानी आता था जो कोपड़िया के नीचे कोसी से मिल जाती थी। अब हमारी हालत यह थी कि हम लोगों के गाँव के पूरब में कोसी बहती थी जबकि पश्चिम में, जहाँ पुनर्वास मिलने की बात कही जाती थी, बागमती का पानी आता था। हम लोग अभी भी इन दोनों नदियों के बीच एक तरह से टापू में बसे थे और विकल्प दो ही थे कि हम कोसी के पानी में डूबना पसन्द करते हैं या बागमती के।
उत्तर बिहार की अधिकांश नदियों पर तब तक सरकार ने तटबन्ध बना दिया था मगर बागमती नदी का तटबन्ध हायाघाट के नीचे उसके कोसी से संगम तक ही बना था। हायाघाट पहुँचने के पहले बागमती का पानी उसी इलाके में फैलता था जहाँ हमें पुनर्वास दिये जाने की बात कही जाती थी। उतना ही नहीं इस क्षेत्र कमला और उसकी सहायक धाराओं का भी पानी आता था। तब हम लोगों ने वहाँ पुनर्वास लेने से मना कर दिया था और अपने मूल गाँव कठडूमर में ही रहने का निर्णय लिया।
कटाव का प्रभाव और आर्थिक कठिनाइयाँ
उस साल कोसी नदी हमारे गाँव के पूर्वी भाग से कटाव शुरू कर चुकी थी और उसने हमारे गाँव के बहुत से परिवारों के घर काट दिये। जिसका घर कटा वह पश्चिम की तरफ अपने खेत में रहने के लिये घर बनाता गया। कोसी के पूर्व की ओर हम लोगों की अब कोई गुंजाइश नहीं बची थी क्योंकि उधर की हमारी जमीन कटती जा रही थी और सरकार का कहना था कि वह पुनर्वास कोसी के पश्चिम के तरफ ही दे सकती है।
सरकारी सहायता की कमी और स्थानीय प्रयास
हमारा गाँव कठडूमर एक बड़ा और अपेक्षाकृत सम्पन्न गाँव था। यह पाँच हजार बीघे का मौजा था। इसलिये उसका कटाव इन परिस्थितियों में और भी ज्यादा बढ़ गया और जिसको जिधर सहूलियत मिली उसको उधर भागना पड़ा। कुछ लोग पूर्वी कोसी तटबन्ध पर ही आकर आबाद हो गये। पश्चिम की ओर पुनर्वास में जाने को कोई तैयार नहीं था पर अपनी जमीन पर बसने से तो कोई रोक नहीं सकता था। सरकार तो हमको पुनर्वास पश्चिम में देने की का बात भी करती थी पर हम लोग उस डुब्बा इलाके में जाना नहीं चाहते थे।
हम लोगों का सरकार से सवाल था की न तो सरकार हमारी पसन्द की जगह पुनर्वास दे रही है और न हम लोगों को कहीं जाने दे रही है और न ही कोई आर्थिक मदद कर रही है तो हम लोग क्या कर सकते हैं? जमीन पर बालू पड़ गया, पटवन की कोई सुविधा नहीं थी। सरकार से हम लोगों ने काफी बहस-मुबाहसा किया कि कुछ नहीं तो ट्रैक्टर और सिंचाई के लिये कोई व्यवस्था ही सरकार कर दे पर कुछ हुआ नहीं। हमारी समस्या थी कि हम लोग अनशन भी करें तो भी सरकार इसका संज्ञान नहीं लेती थी।
खानाबदोशों से बदतर जीवन
जब हमारा गाँव कटने लगा तब भोजन पर बड़ी आफत थी लोग अरवा चावल पानी में फुला-फुला कर खाते थे। कुछ परिवार अपनी नाव पर भी रहते थे क्योंकि घर तो नष्ट हो चुका था। कभी-कभी तो अपने मवेशी भी नाव पर रख लेते थे। कुछ लोगों ने गाँव के पश्चिम में झोपड़ियाँ डाल रखी थीं और अपने जानवरों को किसी ऊँची जगह पर रख दिया था। हमलोगों की हालत खानाबदोशों से बदतर हो गयी थी। भाग्यवश हमारे गाँव का कोई जानवर मरा नहीं। 1968 में जो कोसी का पश्चिम वाला तटबन्ध गोरौल के आसपास कई जगहों पर टूट गया था। उस बाढ़ में जरूर बड़ी संख्या में मवेशी बह गये थे और मरे भी थे।
उस समय नदी में पानी बहुत आया था मगर हम लोगों को इतनी परेशानी नहीं हुई थी जो तबाही कोसी के पश्चिमी तटबन्ध के टूटने से उस इलाके में हुई थी। उसने बहुत तब बरबादी की। हमारे गाँव में कई दो मंजिला, तीन मंजिला मकान थे उनमें से ज्यादातर कट गये और उसको भूल पाना आसान नहीं है। हमारे गाँव में चावल मिल थी। हम लोगों के अच्छे खासे घर थे। हमारे गाँव के लोग सरकार की आँखों में आँखें डाल कर उससे बात करते थे। वह सब चला गया।
यहाँ के एक बड़े नेता लहटन चौधरी हुआ करते थे जो राज्य के उप-मुख्यमंत्री पद तक पहुँचे जब तक वह सक्रिय थे तब तक बरसात के मौसम में हमारे यहाँ रिलीफ का काम होता रहा। जब यह गाँव कट रहा था उसके बाद तो रिलीफ मिली थी, नाव भी चल रही थी। ऐसा सरकार की तरफ से बाढ़ के समय होता था पर काफी कोशिश और कठिनाई के बाद। उसके बाद लूट-खसोट भी होने लगी थी। नाव चलाये बिना ही लोग पैसा ले लेते थे और कभी-कभी ऐसा भी होता था कि जिसकी नाव चलती थी उसका पैसा उसे नहीं मिलता था। उनमें से एक मैं भी था लेकिन कभी मैंने दफ्तर का चक्कर नहीं काटा और न ही किसी को खुश करने की कोई कोशिश की।
बाद में हम लोगों ने बाँस और चचरी का पुल बनाना शुरू किया और उसके ऊपर से लोग आते-जाते थे और मोटर साइकिल भी पार कर लेते थे। 1971 में पाकिस्तान युद्ध के समय सरकार ने किसानों का चावल एक तरह से सीज़ कर लिया था और विपत्ति का वास्ता देकर भुगतान भी समय से नहीं किया था। हम लोगों ने मंत्री जी लहटन चौधरी से शिकायत की कि आप तो अंग्रेजों की सरकार की तरह व्यवहार कर रहे हैं जो इस तरह से हमारा अनाज छीन रहे हैं।
वर्तमान स्थिति और भविष्य की योजना
अब खेती की स्थिति काफी खराब हो गई है केवल मक्का होता है और जो भी दाम मिल जाये उसी में बेच देते हैं। इसलिये जो लाभ होना चाहिये था वह नहीं मिल पाता है। हमारे गाँव की कुछ जमीन कटाव में चली गयी, कुछ बालू बुर्ज हो गयी। उस समय हम लोग अपनी व्यवस्था कर लेते थे पर अभी तो वहाँ आधा रेगिस्तान और आधा पानी हो गया है। हार कर हमने 1974 में सहरसा में जमीन खरीद कर घर बना लिया है और यहीं रहने लगे हैं। खेती को यहीं से सम्हालते हैं।
श्री बालेश्वर सिंह