(अन्तिम प्रणाम स्व. श्री भोला नाथ 'आलोक' जी)
भोलानाथ जी से मैं कभी मिला नहीं। फोन पर उनसे गिरींद्र नाथ झा और पंकज चौधरी के सौजन्य से बात जरूर हुई। लगता ही नहीं था कि मैं किसी अपरिचित व्यक्ति से बात कर रहा हूं। उन्होंने मुझे 1957 के बिहार में पड़े अघोषित अकाल के बारे में बताया था, जिसे यहां दुहरा रहा हूं।
"1957 में यहाँ अकाल जैसी स्थितियां पैदा हो गयी थी। हाल यह था कि लोग फल-फूल-पत्ती खाकर जीने को मजबूर हो गये थे। मैं उन दिनों पत्रकारिता करता था और जवान था। एक दिन मैं धमदाहा के कामती टोला में चला गया था जहाँ गरीब लोग रहते थे। गरीब तो हर जगह ही थे मगर वहाँ की हालत कुछ ज्यादा ही खराब थी। उस इलाके में छपरा के बहुत से बाबू साहब लोग आकर बस गए थे और उनकी हैसियत ज़मींदारों जैसी थी। उन्हीं के लिये कामती लोग काम करते थे। वहाँ गये तो देखा कि एक बरगद का पेड़ था। आम तौर पर बरगद का फल लोग खाते नहीं हैं पर वहाँ के लोग इसके फल को उबाल कर खा रहे थे। मुझे यह बड़ा अजीब सा लगा और इस घटना ने मेरे ऊपर बड़ा भारी असर डाला।"
"मैंने उसी समय प्रधान मंत्री नेहरु जी को एक पत्र लिखा कि यहाँ के गरीब लोग अकाल के कारण बहुत परेशान हैं और उसकी वजह से अभोज्य पदार्थ भी खाने को मजबूर हैं। इन्हें अगर राहत नहीं दी गयी तो यह लोग मर जायेंगें। इसे रोकने के लिये मैं इसी जगह फलां तारीख (सही तारीख अब मुझे याद नहीं है) से आमरण अनशन पर बैठूंगा। सरकारी दफ्तरों से संवाद स्थापित करने और उस पर कार्रवाई होने में बोरा दर बोरा कागज़ खर्च हो जाता है। मेरी नेहरु जी को लिखी चिट्ठी ने तो जैसे कमाल ही कर दिया था। मेरे आवेदन के जवाब में प्रधान मंत्री का सन्देश यहाँ के मुख्य मंत्री और मुख्य सचिव के पास आया कि इस लड़के को अनशन पर बैठने से रोकिये और कहिये कि सरकार से जो कुछ भी मिल सकता है वह मिलेगा।"
"हम तो कामती टोला से यह कह कर आ गये थे कि जाते हैं और जिस दिन अनशन शुरू होगा उस दिन आ जायेंगें। इधर मुख्य मंत्री के आदमी यहाँ के बी.डी.ओ. आई.डी.झा और कृत्यानंदनगर के प्रोजेक्ट अफसर यू. बी. चौबे हमको खोजते-खोजते पूर्णियां आये मगर हम तो अपने गाँव झलारी चले गये थे तो पूर्णियां में कहाँ से मिलते? वह लोग मुझे खोजते-खोजते गाँव तक चले आये। मेरे बारे में जानकारी ली और पूछा कि आप अनशन पर बैठने वाले है? हमने हामी भरी और कहा कि जिस दिन तारीख आ जायेगी उस दिन धमदाहा चले जायेंगें। उन लोगों ने कहा कि आपको डी. एम. साहब याद कर रहे हैं। चलिए, उनसे मिल लीजिये। रिलीफ दी गयी और हम अनशन पर भी बैठे।"
बाढ़ तो पहले भी आती थी मगर उस बाढ़ और आज की बाढ़ में फर्क है। उस समय पूर्णियां पूर्ण रूप से अरण्य था। पूरा इलाका पेड़-पौधों से आच्छादित था। बाढ़ को यह पेड़-पौधे रोकते थे। पानी को पकड़ कर रखते थे। पेड़ कट गये और अरण्य ख़त्म हो गया तब जो पानी आता है उसे रोकने वाली प्राकृतिक शक्ति तो ख़त्म हो गयी। उसके बाद यह सब बाँध, नहरें आयीं जो पानी के रास्ते में रुकावट बनती हैं। आप पानी को बाँध कर रखेंगें और उसे एकाएक छोड़ेंगें या छूट जाए तो वह रुकने वाला है क्या? वह तो तबाही मचायेगा ही। घोड़े को बांधिये और फिर उसे बिना लगाम के छोड़ दीजिये तो वह तो भागेगा ही। अब हमारी कोसी नेपाल सीमा पर बराज से नियंत्रित होती है। वहाँ से पानी छोड़ा जायेगा तो वह रुकेगा क्या? वह तो तबाही मचाते हुए ही आगे जायेगा। वह पानी न केवल आप के खेत-खलिहान को बर्बाद करेगा वरन उसके रास्ते में जो कुछ भी आयेगा वह उसको अपने साथ लेता हुआ चला जायेगा।"
"तबाही पहले भी थी और अभी भी है। पूर्णियां के बारे में कहते थे न कि, ‘ जहर खाओ न माहुर खाओ, मरना है तो पूर्णियां जाओ'। तब यहाँ मलेरिया होता था, कालाजार होता था, हैजा होता था मगर प्लेग नहीं था। इसके आगे हम लोग जानते नहीं थे। अब कैंसर होता है, किडनी खराब होती है वगैरह वगैरह। मेरा दाहिना फेफड़ा नहीं है, गाल ब्लैडर निकल गया है। कुछ दिन डाक्टरों के चक्कर में रहा पर अब सब छोड़ दिया है। अब जम कर खाओ, कसरत करो और ठठा कर हंसो। यही सिद्धांत मानता हूँ।"
श्री भोला नाथ 'आलोक'