दीपावली के अगले दिन गोवर्धन पूजा की जाती है, जिसे अन्नकूट के नाम से भी ख्याति प्राप्त है. वास्तव में यह प्रकृति के प्रति अपनापन दर्शाने का एक पर्व है, जिसमें प्रकृति के तमाम संसाधनों जैसे वन, पर्वत, वन्य जीवन, वनस्पति, अन्न इत्यादि को महत्त्व देने हेतु इनका पूजन किये जाने और इन सभी की सुरक्षा के लिए प्रतिबद्ध होने का संकल्प लिया जाता है.
भारत में इस त्यौहार का आरंभ बिंदु ब्रज और भगवान श्री कृष्ण से जुड़ा हुआ है, जिन्होंने इस पर्व की नींव डाली. ब्रज क्षेत्र से शुरू हुयी यह पूजा धीरे धीरे समस्त भारत में फैली और प्रचलित हुयी. इस पूजा की विशेषता यह है कि इसमें गायों का पूजन किया जाता है, गाय के गोबर से बनें गिरिराज पर्वत की प्रतीकात्मक आकृति को जमीन पर बनाकर उसका पूजन करने की परम्परा भी है और विविध प्रकार के भोजन गिरिराज को अर्पण किये जाते हैं.
इस पर्व से जुडी सबसे प्रसिद्द मान्यता है कि वेदों में दिवाली से अगले दिन वरुण, इंद्र और अग्नि देव के पूजन की परम्परा रही है और लोग ऐसा किया भी करते थे, किंतु द्वापर युग में भगवान श्री कृष्ण ने ब्रजवासियों को समझाया कि हमारा वास्तविक धन तो गोवर्धन पर्वत हैं, जिनसे हमें तरह तरह की वनस्पति, जल, स्वच्छ एवं अनुकूल पर्यावरण, भोजन सभी कुछ मिलता है और हमें इनका पूजन करना चाहिए. ब्रजवासियों के गोवर्धन पूजा करने से इंद्र देव कुपित हुए और उन्होंने भयंकर वृष्टि करके समस्त ब्रजमंडल को डुबो दिया लेकिन भगवान श्री कृष्ण ने अपनी कनिष्का उंगली पर गोवर्धन पर्वत को धारण किया और ब्रजवासियों को गिरिराज की शरण में ले लिया. मान्यता है कि निरंतर सात दिनों तक भी जब इंद्रदेव के मेघों से ब्रजवासियों पर प्रभाव नहीं पड़ा, तो उनका अहंकार चूर-चूर हो गया और उन्होंने भगवान से क्षमायाचना की. इसके बाद से प्रतिवर्ष गोवर्धन पूजा की जाने लगी.
महाराष्ट्र में यह पर्व किसानों द्वारा विशेष रूप से मनाया जाता है, वहां इसे "बलि पड़वा" या "बलि प्रतिपदा" कहा जाता है और राजा महाबलि पर भगवान विष्णु के वामन अवतार की विजय के रूप में यह दिवस मनाया जाता है. वहीं गुजरात में इसे "गुजरती नववर्ष" के तौर पर मनाने की परम्परा है. ब्रज में इस दिन गौवंश के पूजन की परम्परा है, यहां पशुओं को फूल माला पहनाकर उनकी प्रदक्षिणा की जाती है. तो आइये हम भी इस पर्व के वास्तविक महत्त्व को समझते हुए अपनी प्रकृति, पर्यावरण, पशुधन, नदियों आदि की रक्षा का प्रण लें और अध्यातम के साथ साथ अपने देश की गौरवान्वित संस्कृति की भी रक्षा करें.