श्रद्धांजलि पं. गोविन्द झा जी
पंडित गोविंद झा अब नहीं रहे पर आज से कोई तीन साल पहले उन्होंने मुझे 1954 की दरभंगा की बाढ़ के बारे में काफी कुछ बताया था, जिसे मैं उनके प्रति श्रद्धांजलि के तौर पर एक बार फिर अर्पित कर रहा हूँ।
उनका कहना था कि, हमारा गाँव इस्सहपुर, पोस्ट-सरिसबपाही, जिला दरभंगा (वर्तमान मधुबनी) में है। उस समय बाढ़ की इतनी विभीषिका नहीं होती थी 1954 में कमला मधुबनी के पूर्व में आ गयी थी और तब हम लोगों को जरूर काफी कठिनाई का सामना करना पड़ा था। साधारणतया नदी की बाढ़ से हम लोगों को कोई परेशानी नहीं थी। उन दिनों घर आम तौर पर बाँस-फूस के हुआ करते थे और उनमें पानी भर भी जाये तो लोग उसके छप्पर पर चले जाते थे।
यह लगभग हर साल का किस्सा था। इसलिये इसकी तैयारी भी उसी हिसाब से रहती थी। घर-द्वार भी नये सिरे से बनाना पड़ जाये तो भी आसमान नहीं टूटता था। बाढ़ का ठहराव बहुत कम होता था। ज्यादा से ज्यादा सात दिन और उसी के अनुरूप जलावन, साग-सब्जी की व्यवस्था पहले से ही कर ली जाती थी। पानी आता था तो मछली वरदान बन कर खुद-ब-खुद आ जाती थी। हमारे गाँव में आठ पोखरे थे। हर बड़े आदमी के पास पोखरा जरूर था।
आषाढ़ में मछली अंडा छोड़ती थी जो बिखर जाते थे और बाद में हर जगह मछली अपने आप पहुँच जाती थी। सड़क तक पर मछली आ जाती थी सबको उपलब्ध थी। खेत में नया बालू और मिट्टी पड़ती थी। बालू वाले खेत में ककड़ी, शकरकन्द आदि होती थी और मिट्टी वाले खेत में धान जबरदस्त होता था। बीमारी जरूर बहुत आती थी। मलेरिया, कालाजार फैला था। लोग मरते भी थे। पानी दूषित हो जाता था उसके चलते परेशानी होती थी। इससे भी बीमारी फैलती थी। 1954 में जब कमला मधुबनी के पूरब आ गयी तब मधुबनी वाले बहुत चिन्तित हुए कि कमला उधर क्यों चली गयी?
यहाँ के राजा रामेश्वर सिंह बहुत धार्मिक प्रवृत्ति वाले व्यक्ति थे और वह एक बार आसन लगाकर ध्यान देकर बैठ गये कि कमला वापस अपने स्थान पर चली आये लेकिन कमला की पुरानी धारा बदल चुकी थी कालक्रम में वह सूख भी गयी। तब घुटने भर पानी में ही दुर्गा की प्रतिमा का विसर्जन करना पड़ता था। हथिया का पानी उस साल प्रायः बरसा ही नहीं था। बहुत से पेड़ सूख गये थे।
मैंने कुछ वर्ष नेपाल में जलेश्वर के उत्तर पूर्व में बिताये हैं। यह जगह सुरसंड के पूरब में पड़ती है। वहाँ हमने नदी का अद्भुत रंग देखा है। वहाँ यह रिवाज था कि जैसे ही नदी में पानी आता था तो स्थानीय किसान उसे पानी को बाँध कर नदी के पानी को अपने खेतों में ले जाते थे। पानी के रोक दिये जाने के फल स्वरुप नीचे के इलाकों में त्राहि-त्राहि मचती थी कि पानी छोड़ो-पानी छोड़ो।
कभी-कभी ऊपर और नीचे वालों में झगड़ा भी हो जाता था लेकिन उनकी यह सिंचाई व्यवस्था काम करती थी। अब वहाँ क्या हाल है यह तो मुझे नहीं मालूम पर मैं जहाँ रहता था वहाँ से एक दो किलोमीटर दूरी पर फुलवासा में हाट लगती थी और हमारी रसद वहीं से आती थी। बीच में एक धार पड़ती थी जिसे तैर कर पर करना पड़ता था और फिर एक काठ का पुल था उसे भी पार करना पड़ता था। तैर करके नदी पार करना एक आम बात थी।
बरसात के बाद नदी आसपास के नीचे की जमीन को पानी से भर देती थी और यह पानी लगभग स्थिर रहता था। कभी-कभी अधिक पानी होने पर वह बहने भी लगता था। हमारे यहाँ जो काम तालाब करते थे वही काम नेपाल के हिस्से में यह मोइन करते थे।
(((स्व) श्री गोविन्द झा))