1966 बिहार में आपदा के इतिहास में अकाल के नाम से मशहूर है, पर अकाल पड़ने के पहले राज्य में आगलगी की घटनायें कुछ ज्यादा ही हुई थीं। अप्रैल महीने के लगभग अन्त में मुंगेर जिले के बेगूसराय और खगड़िया अनुमंडल में आगलगी की भीषण घटनायें हुईं जिसमें जानमाल का भारी नुकसान हुआ। यह सूचना जिलाधिकारी शंकर शरण में 29 अप्रैल को संवाददाताओं को दी थी।
आगलगी की सबसे बड़ी घटना बेगूसराय थाने के मधुरापुर गाँव में हुई, जहाँ आठ सौ घर जल कर खाक हो गये और 1,366 परिवार बेघर हो गये, 6 लोग मारे गये तथा 5 लोगों को अस्पताल में भर्ती करना पड़ा। 10 जानवर इस आग की भेंट चढ़ गये थे। इस आगलगी में मधुरापुर गाँव में हुई क्षति 4.78 लाख रुपये आधिकारिक तौर पर आँकी गयी थी। आग लगने की घटनायें राहतपुर, पन्हास, दमदमा, मझौल और चनवा में भी हुईं। जहाँ 40 हजार रुपये और 38 क्विंटल अनाज राहत के तौर पर सरकार को बाँटना पड़ा था। 18 हजार रुपये इन गाँवों में गृह निर्माण के लिये प्रभावित लोगों को दिये गये थे।
हमने मधुरापुर गाँव के कुछ बुजुर्गों से इस घटना के बारे में जानकारी लेने का प्रयास किया और उन लोगों ने जो कुछ भी बताया, उसे हम यहां उन्हीं के शब्दों में उद्धृत कर रहे हैं।
गाँव के मधुरापुर-बिचला टोला श्री राम संजीवन सिंह (आयु 75 वर्ष)) बताते हैं कि,
उस समय मैं दसवीं कक्षा का छात्र था। जब आगलगी की घटना हुई तब उस समय जेठ-बैशाख का महीना रहा होगा और पछिया हवा बहुत जोर से चल रही थी। हमारा घर गाँव के बिचला टोला में है और दखिनवारी टोला हम से पश्चिम में है। दखिनवारी टोला में पहले आग लगी जिसमें हमारे टोले के लोग वहाँ की आग को बुझाने के लिये मदद करने गये। वहाँ की आग तो नहीं बुझ पायी लेकिन जब तक हम लोग लौट कर आ पाते तब तक हमारा बिचला टोला भी जल कर खाक हो गया था। कोई भी आदमी अपने घर का सामान बाहर नहीं निकाल पाया था। मवेशी भी न जाने कितने मारे गये। अनाज और कपड़ा-लत्ता सब जल कर खाक हो गया था।
इसी टोले के प्रमोद सिंह बताते हैं कि आग लगने के समय में मेरी माता जी घर में थीं और किसी की हिम्मत नहीं पड़ रही थी कि घर के अन्दर जाकर उन्हें सुरक्षित निकाल लाये। मेरे पिताजी उस समय खेत की तरफ गये थे। जैसे ही उन्हें खबर मिली वह दौड़ते हुए घर आये और बिना कोई परवाह किये जलते घर में घुस कर माताजी को निकाल लाये थे। हमारा परिवार पहलवानों का परिवार है और हमारी हिम्मत बुलन्द रहती है। कुछ दिनों के उपचार के बाद माता जी स्वस्थ हो गयी थी।
गाँव के एक दूसरे सज्जन गोपाल प्रसाद सिंह का कहना था कि गंगा का किनारा होने के कारण हमारे यहाँ काँस बहुत होता है। उन दिनों इस काँस से घर का छप्पर और दीवार बनती थी और घर को घेरते हुए बाड़ भी इसी काँस से बनती थी। इसमें अगर आग लग जाये तो उसे फैलने में देर नहीं लगती और उस साल यही हुआ था। गंगा का किनारा होने के कारण काँस की उपज आज भी हमारे यहाँ उतनी ही होती है कि दरभंगा, मधुबनी तक के लोग यहाँ से काँस खरीद कर ले जाते हैं। यह काँस ही उस साल हमारे लिये काल बन गया था।
राम संजीवन बाबू ने घटना के बाद का जिक्र करते हुए कहते हैं, आगलगी के दो-तीन दिन बाद विधायक कॉमरेड चन्द्रशेखर सिंह यहाँ आये थे। उन्होंने दोनों टोलों का भ्रमण किया था। उस समय हमारे टोले के मुखिया कॉमरेड रामेश्वर सिंह हुआ करते थे और राज्य के पहले मुख्यमंत्री श्री बाबू के पुत्र शिवशंकर बाबू राज्य सरकार में मंत्री हुआ करते थे, वह भी यहाँ आये और सब देख-भाल करके गये। तब कुछ राहत सामग्री हम लोगों के बीच में बँटी। कितने लोग मरे वह तो अब याद नहीं है पर कुछ बच्चे जरूर मरे थे और कुछ बुजुर्ग घायल हुए थे। हमारे टोले का कोई आदमी मरा नहीं था।
उस समय दोनों टोलों को मिला कर आबादी 5-6 हजार के बीच रही होगी। तीसरे टोले को मिला कर 15 हजार की आबादी जरूर थी। हमारे यहाँ गंगा का कटाव तो 1957 से ही शुरू हो गया था। तभी तो हम लोग खुद कट कर तेघरा के नजदीक जाकर बसे थे। 1957 में आम चुनाव हुआ था और उसी साल से यहाँ कटाव लगा। उसी साल बरौनी-मोकामा के बीच राजेन्द्र पुल का भी निर्माण शुरू हुआ था। रामचरित्र बाबू, जो बिहार के पहले सिंचाई मंत्री हुए थे उस साल हमारे यहाँ से स्वतंत्र उम्मीदवार की हैसियत से विधायक चुने गये थे।
क्रमशः-2
श्री राम संजीवन सिंह