भगवान शिव से- हे भोलेनाथ! आज भगवान श्रीकृष्ण के कथन, "अच्छेद्योअ्यमदाह्येअ्यमक्लेद्योअ्शोष्य एव च। नित्यः सर्वगतः स्थाणुरचलोअ्यं सनातनः"।। (गीता-2.24) इसका अर्थ- यह आत्मा अखंडित तथा अघुलनशील है. इसे न तो जलाया जा सकता है, न ही सुखाया जा सकता है. यह शाश्वत, सर्वव्यापी, अविकारी, स्थिर तथा सदैव एक सा रहने वाला है. भगवान श्रीकृष्ण की यह उक्ति यह प्रत्यक्ष रूप से उद्भूत कर रहा है कि ब्रह्मांड ब्रह्म का शरीर है, तब केवल आत्मा के लिये ही, श्लोक में, इतने ज्यादा अलंकार क्यों दिये गये? क्या पूरा शरीर, ब्रह्म की आत्मा है? यदि ऐसा है तो हर क्षण की उथलपुथल, सुख-दुःख, जन्म-मृत्यु आदि की निरंतरता से होते रहना क्या है? इसलिए भगवान श्रीकृष्ण के कथन का कुछ भी अर्थ नहीं लग रहा है, भोलेनाथ! आप बताइए इसका क्या अर्थ? शरीर का कण-कण आत्मा से जुड़ा हुआ है, एक कण का रूपांतरण, शक्ति-तरंग के बदलाव को परिभाषित करता है. अतः शरीर द्वारा किये गया समस्त कार्यों के अनुरूप शरीर में परिवर्तन के उपरांत भी भावना में रूपांतरण का अविनाशत्व क्या यह सत्यापित करता कि आत्मा सर्वव्यापी, अविनाशी, स्थिर तथा सदैव एक सी रहने वाली है. अनन्त जीवों के भौतिक-शरीर के जन्म से मृत्यु तक का निरंतरता से परिवर्तन आत्मा के अविनाशत्व को कैसे निरूपित करता है? क्या यह इलेक्ट्रान-प्रोटोन-न्यूट्रॉन की अविनाशी सर्वत्रैव सर्वकालिक स्थिरीकरण तो नहीं? क्या यही सर्वत्रैव-सवरूपेण आत्मा है? क्या यही ब्रह्मा-बिष्णु-महेश हैं? गीता का यह श्लोक आणविक-सिद्धांत को प्रतिपादित किया. अतः आणविक सिद्धांत देनेवाले भगवान श्रीकृष्ण हैं.
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भगवान शिव से-हे भोलेनाथ! यह आत्मा अव्यक्त, अकल्पनीय तथा अपरिवर्तनीय कहा जाता है. इसे भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं, (गीता-2.25) यदि आत्मा (हम) इतना सूक्ष्म और अपरिवर्तित रहने वाला तो शरीर और संसार के महाजाल से इतना अटूट-बंधन (हमारा) क्यों? हर क्षण काँपता शरीर क्यों और कैसे? चूंकि जीवन्त-शरीर में आत्मा है, इसके कहाँ और कैसे का ज्ञान आप दीजिये भोलेनाथ. आप पद्मासन में बैठकर निरंतर, ध्यान में क्यों रहते हैं? आप की तीसरी आँख क्या है? क्या आप का पद्मासन में बैठना कोशिका को सीधा रखना, रक्त-प्रवाह को तीव्रता और सरलता से उर्ध्वगामी बनाना और आपकी तीसरी आँख, जिससे आपने कामदेव को भस्म कर दिया था, शक्तिकेन्द्र नहीं है? क्या यही आत्मा का स्थान और आत्मा की दीपिका स्वरूप नहीं है? अतः क्या इस जगह और दीपस्तम्भ होने को आत्मस्थ होना कहा जा सकता है? कुछ तो बतलाइये भोलेनाथ! मैं आत्म स्वरूप शरीर में कौन और कहाँ हूँ? यही केन्द्रस्थ होना, तरंगायित शरीर और संसार रूप शोक-सागर से निजात दिला सकता है?