"घैला के पास से लिए गए पानी के नमूनों की जाँच करने पर उनमें लेड और क्रोमियम जैसे विषैले हैवी मेटल्स मिले हैं. साथ ही जिंक, कॉपर, आयरन, निकेल आदि की भी मौजूदगी मिली." (डॉ वेंकटेश दत्ता, पर्यावरण विभाग, बीबीएयू)
देश में एक ओर जहां नदियों के प्रदूषित होने का सिलसिला लगातार जारी है, बढती ग्लोबल वार्मिंग से जलवायु वर्ष प्रति वर्ष बदलती जा रही है और बड़े बड़े महानगरों का गला सूख रहा है. ऐसे में उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ से बीबीएयू द्वारा किये गए अध्ययन की रिपोर्ट सामने आई है, जिसमें बताया गया है कि नालों और नगर निगम के कूड़ा निस्तारण से धरती के पानी में जहर घुल रहा है.
लीचेट के कारण प्रदूषित हो रहा भूगर्भीय जल
बीबीएयू के पर्यावरण विभाग द्वारा कराये गए शोध बताते हैं कि घैला में कूड़ा डंपिंग साईट के लीचेट ने भूगर्भीय जल को अत्याधिक प्रदूषित कर दिया है और खतरनाक मेटल्स धरती की कोख तक पहुंचा दिए हैं. वहीं कुकरैल, हैदर कैनाल जैसे नालों में बहने वाले सीवरेज ने कॉलिफोर्म बैक्टीरिया, नाइट्रेट्स आदि का स्तर बढ़ने से भी भूगर्भीय जल जहरीला हो रहा है. गौरतलब है कि कूड़े के सड़ने से निकला तरल पदार्थ लिचेट होता है, जिसमें पायी जाने वाली खतरनाक धातुएं जैसे कैडमियम, कोबाल्ट, क्रोमियम, कॉपर, लेड, मॉलिब्डेनम, टाइनियम और जिंक के साथ कार्बन ब्लैक, क्लोराइड्स और पैथलेट्स मानवीय स्वास्थ्य के लिए घातक हैं.
सीवर संशोधन का नहीं है प्रबंधन
आंकड़े बताते है कि लखनऊ में लगभग 800 एमएलडी सीवर रोजाना निकल रहा है, लेकिन इसका आधा भी संशोधित नहीं हो पा रहा है. प्रशासन के पास मात्र 430 एमएलडी सीवर के संशोधन की सुविधा है, बाकी सारा अपशिष्ट नालों के जरिये सीधे नदी में जा रही है और गोमती को विषैला बना रहा है. साथ ही नालों को संरचनात्मक तौर पर मजबूत और पक्का नहीं बनाया गया है, जिससे यह सारा सीवर भूगर्भ जल में मिल रहा है.
वर्षों से सड़ रहा है यहां शहर भर का कचरा
बता दें कि लखनऊ के आईआईएम रोड स्थित घैला में वर्षों से डंप किये जा रहे कचरे के कारण बड़े बड़े पहाड़ बन गए हैं, जिससे फैल रही दुर्गंध और गन्दगी से आस पास के लोगों का सांस लेना भी दूभर हो गया है. 2018 तक यहां तकरीबन 15 लाख टन कचरा इकट्ठा हो चुका था, जो बीते दो वर्षों में ओर अधिक बढ़ गया है और आस पास के वातावरण के साथ साथ धरती की कोख को भी प्रदूषित कर रहा है. इस पर निगम ने बायो माइनिंग करने की भी बात कही थी, जिसे भी ठंडे बसते में डाल दिया गया. इस कचरे के कारण भूजल इस कदर प्रदूषित हो चुका है कि घरों में भी गन्दे पानी की सप्लाई हो रही है और साथ ही बरसात में अक्सर यह कचरा गोमती में बह जाता है, जिससे गोमती की दशा भी बदतर हो रही है.
घैला को लेकर पहले भी हो चुके हैं शोध
इससे पहले भी सीपीसीबी द्वारा किये गए शोध में यह बात सामने आई थी कि घैला में कूड़े के पहाड़ के कारण यहां मिटटी की उर्वरक क्षमता लगातार घट गयी है और यहां की मिटटी का पीएच लेवल 9 तक पाया गया था, साथ ही जमीन के नीचे 40 मीटर तक से लिए गए पानी के सैंपल में भी कैडमियम, कोबाल्ट, क्रोमियम, कॉपर, लेड, मॉलिब्डेनम, टाइटेनियम और जिंक के साथ पैथलेट्स भी पाए गए थे, जो बेहद हानिकारक माने जाते हैं. वहीं बीबीएयू के प्रो वेंकटेश दत्ता का कहना है कि यदि कूड़ा डंप किये जाने से पहले जरुरी व्यवस्था जैसे पीबीसी शीट बिछाना, ग्राउंड को पक्का करना, रीसाइक्लिंग के उपाय करना आदि किये गए होते तो आज यह समस्या इतना विकराल रूप लेती ही नहीं. घैला के साथ साथ दुबग्गा, अलीगंज, डुडौली आदि में भी खतरनाक कचरे के कारण धरती विषैली हो रही है.
जानें इन खतरनाक मेटल्स का क्या होता है शरीर पर प्रभाव
कैडमियम अक्सर पानी या प्रदूषित पानी से तैयार किये गए खाद्य पदार्थ के जरिए शरीर में पहुंचता है. इसकी अधिक मात्रा किडनी को खराब कर सकती है. साथ ही यह हमारे दिमाग पर भी प्रतिकूल प्रभाव डालता है. क्रोमियम की अधिकता से हमारी हड्डियों के स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव होता है तो वहीं कोबाल्ट मिले पानी के अधिक सेवन से व्यक्ति के जोड़ों पर असर पड़ सकता है और उसकी शारीरिक सक्रियता कम हो सकती है. जिंक की अधिकता से घबराहट, बैचेनी, पेट से जुडी गंभीर बीमारियां आदि हो सकती हैं. पानी में कॉपर और क्लोराइड के अधिक उपयोग से तंत्रिका तन्त्र पर प्रभाव पड़ता है और नसों में ब्लॉकेज आने की संभावना बढ़ जाती है. लेड, पैथलेट्स, टाइटेनियम जैसे हैवी मेटल्स से कैंसर होने की संभावना सबसे अधिक है, साथ ही टाइटेनियम की जल में अधिक उपस्थिति ब्रेन डेवलपमेंट पर भी नकारात्मक प्रभाव डालती है.
भूगर्भ जल को प्रदूषित करने वालों को मिलेगी सजा
हाल ही में प्रदेश के सीएम ने यूपी भूजल प्रबन्धन एवं विनियमन नियमावली को एक बैठक में मंजूरी दी है, जिसके अनुसार भूगर्भ जल को दूषित करने वालों को सात साल तक की सजा और 20 लाख तक का जुर्माना हो सकता है. इसके अंतर्गत गांव व शहर दोनों में ही कमेटियों का निर्माण किया जायेगा और संकटग्रस्त क्षेत्रों में सरकारी पेयजल योजनाओं या पौधारोपण के अलावा बोरिंग/ट्यूबवेल नहीं लगाये जा सकेंगे. पानी के संरक्षण को लेकर कोई ठोस कानून बनने में सरकार को लगभग 50 साल लग गये, इससे पहले 1971 में पहला भूगर्भ जल प्रबंधन बिला निर्मित हुआ था और उसके बाद अब जाकर यूपी में कोई कानून बना है. प्रो वेंकटेश दत्ता की टीम बीते दस वर्षों से इसे पास करवाने की जद्दोजहद में जुटी थी.