मानवीय शरीर में धमनियां रक्त संचरण करती हैं और हृदय को पोषित करते हुए समस्त शरीर की कार्यप्रणाली को सुचारू बनाये रखने में अहम भूमिका निभाती हैं. ठीक उसी तरह सहायक नदियों को गंगा, यमुना जैसी प्रमुख नदियों की धमनियों के रूप में परिभाषित किया गया है, जो बड़ी नदियों को स्वच्छंद, स्वच्छ, अविरल बनाये रखने के कार्य को युगों से करती आ रही हैं. सहायक नदियों की इस कड़ी में आज चर्चा करते हैं "कठिना नदी" की, जो आदिगंगा गोमती की प्रमुख सहायक है. गोमती को सदानीरा बनाये रखने में भैंसी, गोण, सई, रेठ, पिली, कल्याणी आदि नदियों का जितना महत्त्व है, उतना ही कठिना का भी है. वस्तुतः प्रदेश के लखीमपुर खीरी जिले में प्रवाहित होने वाली कठिना आज अपने जीवन के सबसे कठिन दौर से गुजर रही है. शासन-प्रशासन और आमजन की अनदेखी झेल रही कठिना नदी के सूखने का सिलसिला लगातार जारी है.
जनश्रुतियों के अनुसार काठ के जंगलों से प्रवाहित होने के कारण नदी को कठिना नाम से जाना जाता है. मूलतः यह नदी भी गोमती के ही समान सदानीरा रही है और झील से इसका उद्गम हुआ माना जाता है. कठिना नदी पीलीभीत जिले में स्थित मोतीझील से उद्गमित हुयी है, जहां इसे लोकभाषा में भोगनई झील भी कहा जाता है. तकरीबन 150 किलोमीटर तक प्रवाहित होने वाली कठिना लखीमपुर खीरी के मैलानी जंगल से होते हुए सहजनियां, गंगापुर, देवीपुर, महेशपुर और मोहम्मदी मार्ग से होते हुए आंवला बीट के जंगलों से बहती हुयी पड़ेहार क्षेत्र में स्थित प्राचीन टेढ़ेनाथ शिव मंदिर के पास से निकलती है. इस तरह कठिना नदी तहसील गोला से मोहम्मदी और मितौली होते हुए सीतापुर जिले के अंतर्गत आने वाले बख्तौली गांव में गोमती नदी में विलीन हो जाती है.
बाघों की सैरगाह रही कठिना नदी न केवल वन्य जीवन के लिए अति महत्वपूर्ण मानी जाती है बल्कि यह किसानों की भी लाइफलाइन है. अपने उद्गम क्षेत्र के बाद जब कठिना महेशपुर के जंगलों के होकर गुजरती है, तो इसका कछार बाघों की पसंदीदा जगह बन जाता है. दरअसल तकरीबन 2200 हेक्टेयर के दायरे में विस्तृत मोहम्मदी जंगल का फैलाव गांवों तक है, जहां जंगल की भूमि और कृषि क्षेत्र में अधिक अंतर नहीं है. वहीँ आंवला जंगल भी इससे अनभिज्ञ नहीं हैं. यानि एक ओर कठिना जहां आंवला और बेंत के जंगलों को सिंचती है तो वहीं सिंचाई के उद्देश्य से भी यह नदी बेहद अहम है.
कहा जाता है नदियां न केवल जल का प्रमुख स्रोत होती हैं वरन उस राष्ट्र, समाज एवं क्षेत्र की संस्कृति होती है. कभी लखीमपुर का प्रमुख भौगोलिक आधार रही कठिना आज जगह जगह पर विलुप्त होने के कगार पर है, यहां कृषि के साथ साथ वन्य जीवन के लिए भी पेयजल संकट उत्पन्न हो गया है. नदी किनारे के ग्रामवासी बताते हैं कि नदी के सूखने का दायरा वर्ष दर वर्ष बढ़ता जा रहा है और यह इतना अधिक हो चुका है कि वन्य जीव-जन्तु पानी के लिए खेतों में ट्यूबवेल तक पहुंच जाते हैं. यहां तक कि कईं स्थानों पर भूजल भी तेजी से गिरा है और बोरेवेल भी कार्य नहीं कर पा रहे हैं, जिससे किसानों के सामने सिंचाई की समस्या खड़ी हो गयी है.
मोहम्मदी गोला रोड पर कठिना नदी पर बना अंग्रेजों के ज़माने का पुल बताता है कि आज से 70 साल पहले इस नदी की कहानी कुछ और ही होगी. लेकिन आज यह नदी अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष करते हुए दिख रही है. कृषि के लिए किये गए अतिक्रमण के साथ साथ रेत के खनन ने भी इस नदी को जलविहीन बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी. गोमती के संरक्षण के लिए कार्य कर रहे संरक्षणकर्ताओं का मानना है कि नदी के प्रवाह क्षेत्र में स्थित बेंत के जंगल भी इसके जलस्तर को गिराने का कार्य कर रहे हैं, जिसके लिए प्रशासन को सजग होना पड़ेगा. साथ ही नदी विभिन्न स्थानों पर बेहद प्रदूषित भी है, जिससे इसके प्रदूषण का प्रभाव गोमती पर भी पड़ रहा है. ऐसे में जहां सरकार एक ओर नमामि गंगे की बात करती है वहीं दूसरी ओर यदि गंगा की सहायकों की ऐसी बदहाली एक अलग ही तस्वीर बयां करती है.
आज औद्योगिक कचरे के साथ साथ कृषि में उपयोग होने वाला रासायनिक जहर भी नदी को विषैला कर रहा है, कुल मिलाकर देखा जाए तो आज कठिना के सम्मुख खड़ी सबसे बड़ी समस्याओं में से एक कीटनाशकों का खेती में प्रयोग, कुंभी चीनी मिल का अपशिष्ट और नदी की भूमि का अतिक्रमण है. हालांकि कुछ संस्थाएं अपने स्तर पर कठिना को स्वच्छ और अविरल बनाने के लिए समय समय पर प्रयास करती रहती हैं, लेकिन इस नदी को बचाने के लिए प्रशासन और जनता का उचित समर्थन मिलना बेहद आवश्यक है. अंततः हमें सोचना ही होगा कि गोमती का जीवन इन छोटी छोटी नदियों के जीवन से ही जुड़ा है, इसीलिए प्रशासन को इन नदियों के लिए भी योजनाबद्ध रूप से कार्य करना होगा, जिसमें समाज की भी बराबर की हिस्सेदारी हो.
फोटो साभार - मनदीप सिंह (गोमती सेवा समाज)