"जब आखिरी पेड़ कट जाएगा, जब आखिरी नदी के पानी में जहर घुल जाएगा और जब आखिरी मछली का भी शिकार हो जाएगा, तभी इनसान को एहसास होगा कि वह पैसे नहीं खा सकता..!!"
अमेरिकी अर्टिटेक्ट फ्रैंक लॉयड ने जब पर्यावरण की महत्ता बताने के लिए यह शब्द कहे थे, शायद तब उन्हें भी एहसास होगा कि मनुष्य आगे बढ़ने की चाह में एक दिन इतना स्वार्थी हो जाएगा कि पर्यावरण का दोहन करने में उसे कतई गुरेज नहीं होगा। विडंबना है कि कोरोना की दूसरी लहर में जिस तरह एक एक सांस के लिए लोग तरसे हैं, अपनों को अंतिम विदाई तक उचित प्रकार नहीं दे सके.. उसके बाद भी हम प्रकृति के साथ चलने के स्थान पर प्रकृति पर प्रहार जारी रखे हुए हैं। जिसका जीता जागता उदाहरण है छतीसगढ़ का "हसदेव अरण्य", जहां कोयला खनन के लिए जंगलों का कलेजा छलनी कर औद्योगिक विकास करने की तैयारी की जा चुकी है।
"छत्तीसगढ़ के फेफड़े" के रूप में जाना जाता है, हसदेव अरण्य, जो मध्य भारत में 170,000 हेक्टेयर को कवर करने वाले सबसे बड़े अक्षुण्ण सघन वन क्षेत्रों में से एक हैं। यह वन समृद्ध जैव विविधता से समृद्ध है और वनस्पतियों व जीवों की 450 से भी अधिक प्रजातियों का घर है। हाथियों के झुंडों और माईग्रेटरी पक्षियों के लिए भी हसदेव अरण्य वरदान की तरह है। गोंड आदिवासी समुदाय की लोक संस्कृति यहां सदियों से पोषित होती आई है, यहां तक कि हसदेव बांगो बैराज का कैचमेंट क्षेत्र होने के चलते यहां से छत्तीसगढ़ की लगभग चार लाख हेक्टेयर कृषि भूमि सिंची जाती है। लेकिन जल-जंगल-जीवन के इतने महत्वपूर्ण इस अरण्य के सामने कुछ वर्षों से औद्योगिक कोरोना का संकट खड़ा हुआ है।
प्राकृतिक सौंदर्य से भरपूर हरा भरा हसदेव अरण्य जब तक मध्य प्रदेश का हिस्सा था, तब तक सुरक्षित था लेकिन छत्तीसगढ़ का हिस्सा बनते ही पूँजीपतियों की नजर भी इस पर आ टिकी। कुछ वर्ष पूर्व जैसे ही यह खबर प्रकाश में आई कि हसदेव जंगल में एक बिलियन मीट्रिक टन से भी अधिक काला सोना यानि कोयला छिपा हुआ है, देश के कॉर्पोरेट घरानों की दिलचस्पी भी एकाएक हसदेव अरण्य में बढ़ गई।
कोयला क्षेत्र के सबसे बड़े निजी खिलाड़ी ओपनकास्ट माइनिंग के माध्यम से कोयले के भंडार से परिपूर्ण इस जंगल को नष्ट करने के लिए कमर कस चुके हैं। छत्तीसगढ़ के सरगुजा स्थित परसा कोल ब्लॉक से उत्खनन के लिए देश के इस जाने माने औद्योगिक समूह की कंपनी को केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय से अनुमति मिल चुकी है। हालांकि लगभग 2000 एकड़ में विस्तृत परसा कोल ब्लॉक राजस्थान राज्य विद्युत उत्पादन निगम लिमिटेड को आबंटित हुआ है लेकिन इसके खनन से जुड़ी प्रक्रिया का अधिकार देश के एक बड़े कॉर्पोरेट घराने के पास है। सघन वन क्षेत्र होने के चलते इस कोल ब्लॉक के आबंटन का शुरू से विरोध हो रहा है और यहां निवास करने वाला आदिवासी समुदाय इस निर्णय का विरोध करते हुए आंदोलन कर रहे हैं। बीते 14 अक्टूबर से आदिवासी धरना-प्रदर्शन के जरिए अपने वन्य क्षेत्र को बचाने के प्रयासों में जुटे हुए हैं।
संकट में है आदिवासी समुदायों की आजीविका, लोक संस्कृति और जीवनशैली
जून, 2020 में जब सारी दुनिया कोरोना से उपजे वैश्विक संकट से दो चार हो रही थी और पर्यावरण की महत्ता समझ रही थी, उस समय कोयला मंत्रालय की पहल पर परसा कोल ब्लॉक में खनन के लिए कोयला नीलामी प्रक्रिया की शुरुआत होने को थी। अपने अरण्य क्षेत्र पर औद्योगिक प्रगति का खतरा मंडराते देखकर क्षेत्र के नौ ग्राम प्रधानों ने केंद्र सरकार को पत्र लिखकर प्रस्तावित खनन नीलामी का विरोध जताया, यहां तक कि पर्यावरण की दृष्टि से संवेदनशील इस क्षेत्र में खनन पर पाबंदी लगाने की भी मांग की।
लेकिन 2009 में "केंद्रीय वन पर्यावरण एवं क्लाईमेट चेंज मंत्रालय" के द्वारा जिस क्षेत्र को "नो-गो" घोषित कर खनन से बचाने की बात कही गई थी और आदिवासी समुदायों द्वारा इसे बचाने के तमाम प्रयास भी किए गए.. उन सभी पक्षों को दरकिनार करते हुए 17 जून, 2020 को केंद्र सरकार द्वारा 41 कोयला खदानों के वाणिज्यिक खनन की नीलामी प्रक्रिया का आरंभ यह कहते हुए किया कि, "यह कोयला क्षेत्र को दशकों के लॉकडाउन से बाहर निकालने जैसा होगा।"
सघन जैव-विविधता और पारिस्थितिकी तंत्र का क्षेत्र हसदेव अरण्य का कोयला क्षेत्र 1,879.6 वर्ग किलोमीटर (रायपुर से आठ गुना अधिक क्षेत्रफल) में फैला है और इसमें 23 कोल ब्लॉक शामिल हैं। देखें कैसे शुरू हुई इस सघन वन क्षेत्र को मरु बनाने की कहानी..
1.) अप्रैल 2010 में छत्तीसगढ़ सरकार ने परसा ईस्ट एंड कांता बसन को राजस्थान राज्य विद्युत उत्पाद निगम लिमिटेड के हवाले कर दिया था।
2.) जून, 2011 में केन्द्रीय पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन के फॉरेस्ट पैनल ने इस क्षेत्र को पारिस्थितिकी रूप से अहम मानते हुए खनन की सिफारिश के खिलाफ रिपोर्ट पेश की।
3.) तत्कालीन मंत्री ने समिति के निर्णय को नहीं मानकर राज्य सरकार की खनन सिफारिश को स्वीकार किया व अपेक्षाकृत कम घने और कम जैव विविधता वाले क्षेत्र को खनन के लिए अनुमति दे दी।
4.) 2014 में राज्य सरकार के इस निर्णय को एनजीटी में चुनौती दी गई और आरआरवीयूएनएल द्वारा किए जा रहे खनन को स्थगित किया गया। आदेश के तहत आईसीएफआरई के अध्ययन की बात भी कही गई।
5.) स्थानीय समुदायों का विरोध इस दौरान यहां लगातार जारी रहा। धरना, प्रदर्शन, आंदोलन से लेकर उच्च अधिकारियों तक पत्राचार तक के प्रयास जारी रहे।
6.) 2019 तक भी आईसीएफआरई का अध्ययन क्षेत्र में शुरू नहीं हुआ, 2019 में सुप्रीम कोर्ट के पूछने पर अंतत: मई 2019 में संस्था ने अपना काम शुरू किया। फरवरी 2021 में नौ महीने के अध्ययन के बाद संस्था ने अपनी रिपोर्ट जिन बिंदुओं को रखा, वह इस प्रकार हैं..
खनन प्रक्रिया से जंगल के मध्यम क्षेत्र की सघनता समाप्त हो जाएगी, जिसका सीधा प्रभाव वन्य जीवन के आवागमन पर पड़ेगा।
इस क्षेत्र की संवेदनशील जलवायु भी खनन प्रक्रिया से नकारात्मक रूप से प्रभावित होगी, जिससे घुसपैठिए प्रजाति की वनस्पतियों को स्थापित होने में सहायता मिलेगी।
खनन से मूलभूत ढांचे में भी परिवर्तन आएगा, जिसका असर प्राकृतिक आवास पर पड़ेगा।
हाथी बहुल क्षेत्र होने के चलते खनन प्रक्रिया से इंसान और हाथियों के बीच का संघर्ष भी बढ़ सकता है।
खनन की प्रक्रिया से जंगल की काफी जमीन गैर वन्य क्षेत्र के रूप में उपयोग में लाई जाएगी, जिसका व्यापक असर आस पास प्रवाहित होने वाली छोटी नदियों/नालों पर पड़ेगा, जो बड़ी नदियों के लिए जल का प्राथमिक या माध्यमिक स्त्रोत हैं।
क्षेत्र का लगभग 90 फीसदी आदिवासी समुदाय आजीविका के लिए खेती या जंगल से मिलने वाले वनोपज पर आश्रित है। खनन के चलते इस समुदाय को विस्थापित करने से इनकी सदियों से पोषित हो रही संस्कृति पर संकट आ जाएगा।
किंतु रिपोर्ट के अंतर्गत इन नकारात्मक बिंदुओं के साथ साथ यह भी कहा गया कि क्षेत्र के चार प्रखंडों यानि कि तारा, परसा, पीईकेबी और केंते विस्तार जैसे कुछ खनन क्षेत्र, जहां खनन शुरू हो चुका है या फिर अनुमति के अंतिम चरण में है, वहां जैव विविधता संरक्षण के प्रबंध कर खनन प्रक्रिया को जारी रखा जा सकता है।
यानि अध्ययन में एक ओर जहां खनन से होने वाले नुकसान का जिक्र है तो वहीं दूसरी ओर खनन की सिफारिश भी। जिसे लेकर यह रिपोर्ट विवादों में घिरी रही और इसे आलोचना का शिकार भी होना पड़ा।
जारी है आदिवासी समुदाय का संघर्ष
हसदेव अरण्य में स्थानीय गोंड, पंडों और कोरवा समुदाय अपने वन, वन्य जीवन, लोक संस्कृति और आजीविका को बचाने के लिए बीते 6-7 वर्षों से संघर्ष कर रहे हैं, लेकिन औद्योगिक विकास व राजनीतिक स्वार्थ के बीच आदिवासी समुदायों की आवाज को दबाया जाना भी निरंतर जारी है। ओपन कास्ट माइनिंग ने एक ओर जहां जंगल, नदियों, वन्य जीवन और आदिवासियों की रोजी रोटी को प्रभावित किया है वहीं उनकी सदियों पुरानी लोकसंस्कृति व जीवनशैली पर भी इसका असर पड़ रहा है।
भारत सरकार द्वारा हसदेव जंगल में तीस कोयला भंडारों को चिन्हित किए जाने के बाद से यानि 2013 से ही खनन प्रक्रिया की शुरुआत की जा चुकी है, जो परसा पूर्वी कांता बसन में निर्बाध रूप से जारी भी है। तभी से आदिवासी समुदाय भी विरोध का स्वर उठाए हुए हैं। "हसदेव अरण्य बचाओ संघर्ष समिति" के अंतर्गत खदानों के आस पास रहने वाले आदिवासियों ने एकत्रित होकर आंदोलन की शुरुआत की हुई है।
समय बीता, सरकारें बदली, लेकिन आदिवासियों की चिंता आज भी वही है। उन्हें न ही "वन अधिकार कानून" से कोई सुरक्षा मिल पाई और न ही राज्य सरकार का बदलाव होने से। आदिवासी परिवारों के लिए उनका आवास और महुआ, तेंदू पत्ता, चिरौंजी, साल, मशरूम, आग की लकड़ी आदि के तौर पर उनकी जीविका का सबसे बड़ा स्त्रोत धीरे धीरे उनकी ही पहुँच से दूर होता जा रहा है। इसीलिए हसदेव क्षेत्र के 40 गांवों से आदिवासी समुदाय बीते सात वर्षों से 2000 एकड़ में फैले हसदेव को बचाने के लिए आंदोलन में जुटे हैं।