ऐतिहासिक फल्गु नदी, जो हिन्दुओं के लिए आस्था का प्रमुख केंद्र बनकर पवित्र गया नगरी में बहती है, आज प्रदूषण और अतिक्रमण के चलते पूरी तरह सूख चुकी है. जिसके कारण देश-विदेश से यहां आने वाले श्रद्धालुओं में भी चिंता देखी जा सकती है. भारत में नदियां मात्र प्राकृतिक संसाधनों के प्रतीक के रूप में नहीं बल्कि धार्मिक और सांस्कृतिक विरासतों को साथ लेकर चलने वाली जीवन धाराओं की तरह देखी जाती रही हैं, लेकिन हमारी लोभ-लालच भरी स्वार्थी प्रवृति ने इन्हीं जीवनदायिनी नदियों से खुलकर जीने का अधिकार छिन लिया. गया, जिसे मुक्तिधाम के रूप में जाना जाता है और कहा जाता है कि यहां साक्षात् भगवान श्री हरि विष्णु के चरण चिन्ह पड़े थे, वहां पवित्र फल्गु नदी सदियों से बह रही है.
इसी पवित्र फल्गु नदी में पितृपक्ष के दौरान पितरों को तर्पण दिया जाता है. इसके तट पर बने मंदिरों के पुजारी और स्थानीय निवासी बताते हैं कि त्रेतायुग में राजा दशरथ के स्वर्गवास के उपरांत भगवान राम अपनी पत्नी सीता के साथ फल्गु नदी के तट पर पिंडदान के लिए आए थे और वहां हुयी घटनाओं के चलते माता सीता ने फल्गु नदी को शाप दिया था कि तुम्हारी धारा अब ऊपर नहीं नीचे बहेगी और तब से आज तक फल्गु नदी की धारा ऊपर नहीं बहती है. जो अपने आप में ही बेहद अनोखा परिद्रश्य होता है.
फल्गु नदी का भौगोलिक चित्रण
गंगा की प्रमुख सहायक फल्गु मुख्य रूप से झारखण्ड के पलामू जिले में स्थित उत्तरी छोटा नागपुर के पठारी भाग से उद्गमित होती है और छोटी छोटी धाराओं के रूप में बहती हुयी मुख्य धारा का निर्माण करती है. फल्गु को उसके आरंभिक सफर के दौरान निरंजना या लिलाजन नाम से भी जाना जाता है. आगे बहते हुए बोधगया के पास मोहना नामक एक और नदी से मिलते हुए यह काफी वृहद स्वरुप ले लेती है और बिहार में लगभग 235 किलोमीटर का सफ़र तय करते हुए जहानाबाद जिले में गंगा में मिल जाती है.
गया जिले में फल्गु एक बड़े भूभाग को सिंचित करते हुए तटीय गांवों के हजारों लोगों के आर्थिक, धार्मिक, सांस्कृतिक और सामाजिक जीवन से जुडी हुयी है. इसके तट पर प्रतिवर्ष फल्गु महोत्सव मनाया जाता है, जहां नदी की रक्षा के लिए लोग एकत्रित होते हैं. धार्मिक रूप से जहां तर्पण के लिए फल्गु माननीय है तो वहीं पूर्वांचलियों के सर्वप्रमुख त्यौहार छठ पूजा के दौरान भी इस नदी के तट पर काफी भीड़ उमड़ती है. वेदों पुराणों में मोक्षदायिनी कही जाने वाली फल्गु जन जीवन के प्रत्येक आयाम से जुडी होने के बाद भी बीते कुछ समय से प्रदूषण के कारण सूखती जा रही है.
धीरे धीरे खत्म हो रही है फल्गु
इतिहास और संस्कृति का अनूठा संगम रही फल्गु धीरे धीरे स्वयं इतिहास बनने की कगार पर खड़ी है, जिसका सबसे बड़ा कारण नदी की जमीन पर अतिक्रमण कर उसे पाट लिया जाना है. आज फल्गु की जमीन पर कब्जा कर मकान, कारखाने खड़े कर दिए गए और कूड़े कचरे से इसके किनारों को भरकर नदी का दम घोट दिया गया है. नदी जल का दोहन भी इतना अधिक किया गया है कि पहले जहां एक दो हाथ रेत हटाने पर ही जलधारा फुट पड़ती थी, अब बीस फुट की खुदाई पर भी पानी नहीं निकलता. वाटरमैन राजेंद्र सिंह बताते हैं कि पहले नदियों का पेट भरने के लिए तालाब, पोखर, ताल आदि प्राकृतिक संरचनाएं हुआ करती थी, जो गुजरते समय के साथ नष्ट होती चली गयी और नतीजतन नदियों का भूगर्भीय जल स्वाभाविक रूप से घटता चला गया.
फल्गु नदी के सूखने का एक ओर बड़ा कारण स्थानीय प्रशासन का गैर-जिम्मेदार रवैया माना जा रहा है, शहर भर के सीवरों की गन्दगी नदी के हवाले की जा रही है, इसके साथ ही रेत के खनन से भी नदी की प्राकृतिक संरचना अस्त-व्यस्त हो गयी है. इन सभी के परिणाम हैं कि आज श्रृद्धालुओं को तर्पण के लिए जाने पर नाले का पानी मिलता है और गर्मियों के बढ़ते ही पेयजल की किल्लत से भी शहरवासियों को जूझना पड़ता है.
आस्था की प्रतीक मोक्षदायिनी फल्गु, जिसने अपने किनारे भगवान श्री राम-माता सीता को नमन किया होगा, बोद्ध धर्म के संस्थापक भगवान बुद्ध ने जिसके किनारे तप करते हुए निर्वाण प्राप्ति की और अनगिनत ऐतिहासिक क्षणों की गवाह रही फल्गु आज स्वयं मोक्ष के लिए प्रतीक्षारत है. देश की अन्य नदियों की भांति गंगा की इस प्रमुख सहायक को भी अपने उद्धार का इंतजार है.